बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
अध्याय - 4
दक्षिण भारतीय कुषाण कला
(South Indian Kushan Art)
प्रश्न- कुषाण काल में कलागत शैली पर प्रकाश डालिये।
अथवा
कुषाण काल की कला का परिचय दीजिए।
उत्तर -
कुषाण काल (प्रथम शताब्दी)
कुषाण कला कुषाण वंश के काल में लगभग पहली शताब्दी के अंत से तीसरी शताब्दी तक उस क्षेत्र में सृजित कला का नाम है, जो अब मध्य एशिया, उत्तरी भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ भागों को समाहित करती है। कुषाण कलाकृतियों की शैली कठिन, पुरोहितवादी और प्रत्यक्ष है और वह व्यक्ति की आंतरिक शक्ति व गुणों को रेखांकित करती है।
कुषाण राजवंश का संस्थापक 'कडफिसेस' हुआ। उसने प्रथम शताब्दी ई.पू. तक राज्य किया, तत्पश्चात् कनिष्क शासक बना। (58 ई. पू. सिंहासन पर बैठा) वह धार्मिक, विद्वत्व प्रेमी तथा कलानुरागी शासक था। उसने कनिष्कपुर नगर बसाया। बौद्ध विहारों का निर्माण किया। उसने धार्मिक सुधार किये, जिसके फलस्वरूप हीनयान सम्प्रदाय के विरोध में महायान बौद्ध सम्प्रदाय का उदय हुआ। उसके काल में हिन्दू यूनानी कला अर्थात् गांधार शैली का प्रचलन हुआ और यह शैली भारतीय रूप धारण करने लगी। कुषाणों के पश्चात् सातवाहनों ने 100- 275 ई. तक दक्षिण में सत्ता प्राप्त की। इस युग में नवीन कला- शैलियों का जन्म हुआ।
कुषाणों ने एक मिश्रित संस्कृति को बढ़ावा दिया जो उनके सिक्कों पर बने विभिन्न देवी- देवताओं, यूनानी - रोमन ईरानी और भारतीयों के द्वारा सबसे अच्छी तरह समझी जा सकती है। उस काल की कलाकृतियों के बीच दो मुख्यत: शैलीगत विशेषतायें देखी जा सकती हैं ईरानी उत्पत्ति की शाही कला तथा भारतीय स्ट्रोटोन से मिश्रित बौद्ध कला। ईरानी उत्पत्ति की शाही कला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण सात कुषाण राजाओं द्वारा जारी स्वर्ण मुद्रायें, शाही कुषाण प्रतिकृतियाँ उदा० कनिष्क की प्रतिमा और अफगानिस्तान में सुर्ख कोतल में प्राप्त राजसी प्रतिकृतियाँ हैं। कुषाण कलाकृतियों में मानव शरीर व वस्त्रालंकार के यथार्थवादी चित्रण के प्रति कोई रुचि नहीं है। ये उस दूसरी शैली के विपरीत हैं जो कुषाण कला की गांधार व मथुरा शैलियों की विशेषता है। कनिष्क बौद्ध धर्म में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित है क्योंकि वह न केवल बौद्ध धर्म में विश्वास रखता था वरन् उसने उनकी शिक्षाओं के प्रचार एवं प्रसार को बहुत प्रोत्साहन दिया। इसका उदाहरण है कि उसने कश्मीर में चतुर्थ बौद्ध सम्मित का आयोजन करवाया था जिसकी अध्यक्षता वसुमित्र एवं अश्वघोष द्वारा की गई थी। इसी परिषद में बौद्ध धर्म दो मतों में विभाजित हो गया हीनयान एवं महायान। इसी समय बुद्ध का 22 भौतिक चिन्हों वाला चित्र भी बनाया गया था। उसने यूनानी बौद्ध कला की प्रतिनिधित्व वाली गांधार कला को भी उतना ही प्रोत्साहन दिया जितना हिन्दू कला के प्रतिनिधित्व वाली मथुरा कला को दिया था। कनिष्क ने निजी रूप से बौद्ध तथा फारसी दोनों की ही विशेषताओं को अपनाया, किन्तु उसका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर अधिक था। कुषाण साम्राज्य की विभिन्न पुस्तकों में वर्णित बौद्ध शिक्षाओं एवं प्रार्थना शैली के माध्यम से कनिष्क के बौद्ध धर्म के प्रति झुकाव का पता चलता है। कनिष्क का बौद्ध स्थापत्य कला को सबसे बड़ा योगदान पेशावर का बौद्ध स्तूप था, जिन पुरातत्ववेत्ताओं ने इसके आधार को 1908-1909 में खोजा, उन्होंने बताया कि इस स्तूप का व्यास 286 फीट (87 मी.) है। चीनी तीर्थ यात्री जुआनजांग ने लिखा है कि इस स्तूप की ऊँचाई 600 से 700 (चीनी) फीट (लगभग 180 210 मी. या 491-689 फीट) थी तथा ये बहुमूल्य रत्नों से जड़ा हुआ था। निश्चित रूप से ये विशाल अत्यन्त सुन्दर इमारत, प्राचीनकाल के आश्चर्यों में से एक रही।
बौद्ध मुद्रायें - कनिष्क काल की बौद्ध मुद्रायें अन्य मुद्राओं की तुलना में काफी कम थीं (लगभग सभी मुद्राओं का मात्र 1 प्रतिशत)। कई मुद्राओं में कनिष्क को आगे तथा बुद्ध को यूनानी शैली में पीछे खड़े हुए दिखाया गया है। कुछ मुद्राओं में शाक्य मुनि बुद्ध एवं मैत्रेय को भी दिखाया गया है। कनिष्क के सभी सिक्कों की तरह इनके आकार व रूपांकन, मोटे-मोटे खुरदुरे तथा अनुपात बिगड़े हुए थे। बुद्ध की आकृति हल्की-सी बिगड़ी हुई, बड़े आकार के कानों वाली तथा दोनों पैर कनिष्क की भाँति ही फैलाये हुए है। यह यूनानी शैली की नकल में दिखायी गयी है। कनिष्क के बौद्ध तीन प्रकार के मिले हैं। कुषाण के बुद्ध अंकन वाले मात्र छ: स्वर्ण सिक्के हैं। इनमें से भी छठा, एक प्राचीन आभूषण का मध्य भाग में जड़ा हुआ भाग था, जिसमें कनिष्क बुद्ध अंकित हैं तथा हृदयाकार माणिक्यों के गोले से सुसज्जित है। कनिष्क प्रथम के सभी सिक्के स्वर्ण में ढले हुए हैं एवं दो भिन्न मूल्यवर्गों में मिले हैं। एक दीनार लगभग 8 ग्राम का एवं एक चौथाई दीनार लगभग 2 ग्राम का है। बुद्ध को भिक्षुओं जैसे चोगे अन्तर्वसक, उत्तरसंग पहने तथा ओवरकोट जैसी सन्घाटी पहने दिखाया गया है। उनके कान अत्यधिक बड़े व लम्बे दिखाये गये हैं जो किसी मुद्रा में प्रतीकात्मक रूप से अतिश्योक्त हैं किन्तु बाद में कई गान्धार की मूर्तियों (3-4वीं शताब्दी ई.) में भी ऐसा ही दिखाया गया है। उनके शिखा स्थान पर एक बालों का जूड़ा भी बना हुआ है। ऐसा गांधार के बाद बहुत से शिल्पों में देखने को मिलता है।
इस प्रकार कह सकते हैं कि बुद्ध के सिक्कों में उनका रूप उच्च रूप से प्रतीकात्मक बनाया गया है, जो कि पहले के गांधार शिल्पाकृतियों से अलग है। ये गांधार शिल्प बुद्ध अपेक्षाकृत अधिक प्राकृतिक दिखाई देते हैं। कई मुद्राओं में इनकी मूंछ भी दिखाई गई है। इनके दायें हाथ की हथेली पर चक्र का चिन्ह है एवं भौंवों के बीच उर्ण (तिलक) चिन्ह होता है। बुद्ध द्वारा धारण किया गया पूरा चोंगा गांधार रूप से अधिक मिलता है, बजाय मथुरा के।
आरम्भिक समय में बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा बलवती थी। हीनयान (संकरा पंथ या प्राचीन थेरवादी धर्म) का बौद्ध धर्म के अन्तर्गत लगभग 200 ई.पू. तक महात्मा बुद्ध की छवियों या मूर्तियों का निर्माण नहीं किया गया। अतः धर्म प्रचार या बुद्ध के अस्तित्व को दर्शित करने के लिए उनके प्रतीक रूप में छत्र, मुकुट, पगड़ी, चरण पादुका, बौद्ध-वृक्ष, धर्म-चक्र या सिंहासन आदि के अंकन की प्रथा प्रचलित हो गई थी। कुषाण राज्य में कनिष्क के सम्राट बनते ही महायान (विस्तीर्ण पंथ या विकासवादी पंथ) बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। इसके फलस्वरूप भगवान बुद्ध की छवियाँ मूर्ति या चित्र के रूप में अंकित की जाने लगीं और बुद्ध के अंकन पर कोई धार्मिक प्रतिबंध न रहा। कनिष्क काल में बुद्ध की मूर्तियाँ बनवाई गईं। इन मूर्तियों की शैली यूनानी थी।
कुषाण काल में चित्रकला का योगदान - कुषाण कलाकृतियों की शैली कठिन, पुरोहितवादी और प्रत्यक्ष है और वह व्यक्ति की आंतरिक शक्ति व गुणों को रेखांकित करती है। इसमें मानव शरीर अथवा वस्त्रालंकार के यथार्थवादी चित्रण के प्रति कोई रुचि नहीं है। यह उस दूसरी शैली के विपरीत है जो कुषाण कला की गांधार व मथुरा शैलियों की विशेषतायें हैं।
युगों का दौर - मौर्य साम्राज्य का अवसान हुआ और उसकी जगह शुंग वंश ने ली, जिसका शासन अपेक्षाकृत बहुत छोटे क्षेत्र पर था। दक्षिण में बड़े-बड़े राज्य उभर रहे थे और उत्तर में काबुल से पंजाब तक बारब्री या भारतीय यूनानी फैल गये थे। मेनांडर के नेतृत्व में उन्होंने पाटिलपुत्र तक पर हमला किया, किन्तु उनकी हार हुई। खुदमेनांडर पर भारतीय चेतना और वातावरण का प्रभाव पड़ा और वह बौद्ध हो गया। वह राजा मिलिंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बौद्ध आख्यानों में उसकी लोकप्रसिद्धि लगभग एक संत के रूप में हुई। भारतीय और यूनानी संस्कृतियों के मेल से अफगानिस्तान और सरहदी सूबे के क्षेत्र में गांधार की यूनानी बौद्ध कला का जन्म हुआ। भारत के मध्य प्रदेश में सांची के निकट बेसनगर में ग्रेनाइट पत्थर की एक लाट है, जो हेलिओदो स्तंभ के नाम से प्रसिद्ध है। इसका समय ई.पू. पहली शताब्दी है और इसमें संस्कृत का एक लेख खुदा है। इससे हमें उन यूनानियों के भारतीय होने की झलक मिलती है जो सरहद पर आये थे और भारतीय संस्कृति अपना रहे थे। मध्य एशिया में शक (सीदियन) लोग ऑक्सस (अक्षु) नदी की घाटी में बस गए थे। यूइ ची सुदूर पूरब से आए और उन्होंने इन लोगों को उत्तर भारत की ओर धकेल दिया। ये शक बौद्ध और हिन्दू हो गये। यूइ-चियों में से एक दल कुषाणों का था। उन्होंने सब पर अधिकार करके उत्तर भारत तक अपना विस्तार कर लिया। उन्होंने शकों को पराजित करके, उन्हें दक्षिण की ओर ले गए। इसके बाद कुषाणों ने पूरे उत्तर भारत और मध्य एशिया के बहुत बड़े भाग पर अपना व्यापक और मजबूत साम्राज्य कायम किया। उनमें से कुछ ने हिन्दू धर्म को अपना लिया, लेकिन अधिकांश लोग बौद्ध हो गये। उनका सबसे प्रिय शासक कनिष्क, उन बौद्ध कथाओं का भी नायक था, जिनमें उसके महान कारनामें और सार्वजनिक कामों का जिक्र था। उसके बौद्ध होने के बावजूद ऐसा लगता है कि राज्य धर्म का स्वरूप कुछ मिला-जुला था, जिसमें जरथुष्ट्र के धर्म का भी योगदान था। यह सरहदी सूबा, जो कुषाण साम्राज्य कहलाया, उसकी राजधानी आधुनिक पेशावर के निकट थी। तक्षशिला का पुराना विश्वविद्यालय भी उसके निकट था। वह बहुत से राष्ट्रों से आने वाले लोगों के मिलने का स्थान बन गया। ये विभिन्न संस्कृतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती थीं। इसके आपसी प्रभावों के परिणामस्वरूप मूर्तिकला और चित्रकला की एक सशक्त शैली ने जन्म लिया। इतिहास की दृष्टि से इसी समय चीन और भारत के बीच पहले सम्पर्क हुए और 64 ई. में यहाँ चीनी राजदूत आये। उस समय चीन से भारत को तोहफे मिले, उनमें तूर्फान और कूचा में भारतीय चीनी और ईरानी संस्कृतियों का अद्भुत मेल हुआ।
कुषाण काल में बौद्ध धर्म दो सम्प्रदायों में बँट गया महायान और हीनयान। उन दोनों के बीच मतभेद हुए। इन विवादों में एक नाम सबसे अलग और विशिष्ट दिखाई पड़ता है। यह नाम नागार्जुन का है जो ईसा की पहली शताब्दी में रहा। उनका व्यक्तित्व महान था। वे बौद्ध शास्त्रों और भारतीय दर्शन दोनों के बड़े विद्वान थे। उन्हीं के कारण भारत में महायान की विजय हुई। महायान के ही सिद्धान्तों का प्रचार चीन में हुआ।
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